Raksha Bandhan Katha-रक्षा-बंधन की कथा
विजेता दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसने राजपद से घोषित कर दिया कि इन्द्र देव सभा में न आयें तथा देवता एवं मनुष्य यज्ञ-कर्म न करें। जिसको इसमें आपत्ति हो वह राज्य छोड़कर चला जाय। दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ वेद पठन-पाठन तथा उत्सव समाप्त कर दिये गये। धर्म का नाश होने से देवताओं का बल घटने लगा इधर इन्द्र दानव से भयभीत हो ,बृहस्पति को बुलाकर कहने लगा -हे गुरु मैं शत्रुओं से घिरा हुआ प्राणांत संग्राम करना चाहता हूँ। होनहार बलवान होती है जो होना है होकर रहेगा। पहले तो बृहस्पति ने समझाया कि क्रोध करना व्यर्थ है परन्तु इंद्र की हठवादिता तथा उत्साह देखकर रक्षा विधान करने को कहा।
श्रावण पूर्णिमा के प्रातःकाल को रक्षा का विधान संपन्न किया गया।
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां मनुबध्नामि, रक्षंमाचल माचल।।
अर्थ-“जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)”
उक्त मंत्रोच्चारण से बृहस्पति ने श्रावण पूर्णिमा के दिन ही रक्षा विधान किया। सह धर्मिणी इन्द्राणी के साथ वृत्र संघारक इंद्र ने बृहस्पति ने उस वाणी का अक्षरण पालन किया। इन्द्राणी ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा स्वस्तिवाचन करके इन्द्र के दायें हाथ में रक्षा की पोटली बाँध दिया। इसी के बल पर इन्द्र ने दानवों पर विजय प्राप्त की।
Raksha Bandhan के दिन बहनों द्वारा जो रक्षा सूत्र बांधा जाता है वह न केवल भाई की अनिष्ट से रक्षा करता है अपितु रक्षा बंधन का यह अवसर भाई-बहन के संबंधों को मधुर भी बनाता है। साथ ही भाई भी अपनी बहन की रक्षा का संकल्प लेते हैं। किन्तु इस पर्व सिर्फ भाई बहन ही नहीं अपितु गुरु शिष्य द्वारा भी एक दूसरे को राखी बाँधी जाती है।
पहला रक्षा सूत्र अपने इष्ट को या भगवान श्री कृष्ण को बाँधें। तत्पश्चात यदि आपके गुरु हैं तो संभव हो सके तो उनसे रक्षा सूत्र अवश्य बंधवाएं या फिर मंदिर में पुरोहित जी से रक्षा सूत्र बंधवाएं।
इसके पश्चात अपने अपने भाई को राखी बाँधें। यह ध्यान रखें कि भद्रा में राखी न बांधें। भाई को घर में बनी हुई मिठाई खिलाएं तो सर्वश्रेष्ठ होगा।
हर साल सावन मास की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले इस त्योहार को लेकर कई मान्यताएं हैं। कहीं-कहीं इसे गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक माना जाता है। माना जाता है कि यह त्योहार महाराज दशरथ के हाथों श्रवण कुमार की मृत्यु से भी जुड़ा है। इसलिए मानते हैं कि यह रक्षासूत्र सबसे पहले गणेशजी को अर्पित करना चाहिए और फिर श्रवण कुमार के नाम से एक राखी अलग निकाल देनी चाहिए। जिसे आप प्राणदायक वृक्षों को भी बांध सकते हैं
महाभारत की कथा भी जुड़ी हुई है। युद्ध में पांडवों की जीत को सुनिश्चित करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने युद्धिष्ठिर को सेना की रक्षा के लिए राखी का त्योहार मनाने का सुझाव दिया था। वहीं अभिमन्यु युद्ध में विजयी हों, इसके लिए उनकी दादी माता कुंती ने भी उनके हाथ पर रक्षा सूत्र बांधकर भेजा था। वहीं द्रौपदी ने भी उनकी लाज बचाने वाले अपने सखा और भाई कृष्णजी को भी राखी बांधी थी। इस दिन सावन के महीने की पूर्णिमा तिथि थी।
एक बार देवी लक्ष्मी ने लीला रची और गरीब महिला बनकर राजा बलि के सामने पहुंचीं और राजा बलि को राखी बांधी। बलि ने कहा कि मेरे पास तो आपको देने के लिए कुछ भी नहीं हैं, इस पर देवी लक्ष्मी अपने रूप में आ गईं और बोलीं कि आपके पास तो साक्षात भगवान हैं, मुझे वही चाहिए मैं उन्हें ही लेने आई हूं। इस पर बलि ने भगवान विष्णु को माता लक्ष्मी के साथ जाने दिया। जाते समय भगवान विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया कि वह हर साल चार महीने पाताल में ही निवास करेंगे। यह चार महीने चर्तुमास के रूप में जाने जाते हैं जो देवशयनी एकादशी से लेकर देवउठनी एकादशी तक होते हैं।