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Friday, April 29, 2022

पति-पत्नी के खराब रिश्तों की वजह उनकी कुंडली में मौजूद ग्रह भी हो सकते हैं. जब वर-वधु के ग्रहों की दशा बिगड़ने लगे तब शादी जैसा पवित्र बंधन भी कमजोर पड़ने लगता ह

 


पति-पत्नी के खराब रिश्तों की वजह उनकी कुंडली में मौजूद ग्रह भी हो सकते हैं. जब वर-वधु के ग्रहों की दशा बिगड़ने लगे तब शादी जैसा पवित्र बंधन भी कमजोर पड़ने लगता ह



तलाक के लिए जिम्मेदार ग्रहों की स्थिति 

  • जब कुंडली में मौजूद गुरू में शुक्र की दशा चल रही हो या शुक्र में गुरू की दशा चल रही हो तो पति-पत्नी का रिश्ता खराब होना शुरू हो जाता है. 
  • वर-वधु की कुंडली में जब शनि सप्तम भाव में चला जाता है तब रिश्ते टूटने की कगार पर पहुंच जाते हैं. 
  • वर या वधु की कुंडली के सप्तम या अष्टम भाव में जब कोई शैतान ग्रह पहुंच जाता है तो वह रिश्ता टूटने लगता है. 
  • इसके अलावा कुंडली के चौथे भाव का स्वामी छठे भाव में चला जाए या छठे भाव का स्वामी चौथे भाव में चला जाए तो ऐसी स्थिति में भी तलाक की आशंका बढ़ जाती है. 
  • इसके साथ ही जब जन्म कुंडली में शुक्र ग्रह मूल, ज्येष्ठा, कृत्तिका या आर्द्रा नक्षत्र में मौजूद हो तो रिश्ता टूटने का खतरा रहता ह

Thursday, April 28, 2022

Fertility Astrology | IVF – Frozen Embryo Transfer Auspicious Date and Time by Astrology

 

IVF – Frozen Embryo Transfer Auspicious Date and Time by Astrology





Childless couples opt for the IVF process only when they are discouraged from adopting all-natural methods of having a child. This process is not easy and its success rate is low as well as extremely expensive. 

When couples try for IVF baby & adopted child

Once the couples aren’t able to conceive naturally then they start trying for an IVF baby. IVF is a popular way in the current time for conceiving via alternative ways. IVF has multiple ways for conceiving such as via own sperms or sperms donor. Sometimes due to issues of conception via their wombs, couples will go for surrogacy. And when no hope then finally goes for the adoption of a kid.



What is IVF?

In Vitro Fertilization (IVF) is an effective procedure that is used to help with fertility and for conception. IVF treatment involves mixing a woman’s eggs and a man’s sperm under certain controlled conditions in the laboratory. After this, when an embryo is formed through combination, then it is again inserted into the woman’s uterus. 



Auspicious Time or Muhurt for starting the IVF process 

Auspicious Date or Tithi for IVF

Pratipada ( Krishna Paksh), Dwitiya, Tritiya, Panchami, Saptami, Dashmi, Dwadashi, Tryodashi . (Shukla paksha,) Tithi is good. Amavasya, Poornima and Bhadra are avoided.


Nakshatra or Constellation 

The best constellation ( Nakshatra) for the IVF process are:—

All the fixed Nakshatras (Uttaraphalguni, Uttarashada, Uttarbhadrapada and Rohini) are very good and the remaining Mrigashira, Anuradha, Hasta, Swati, Shravan, Dhanishtha and Shatabhisha are medium for that purpose.


Nakshatras  to be specifically avoided are:–

All aggressive Nakshatras — Poorvafalguni, Poorvashada, Poorvabhadrapad, Bharni and Magha.

All Teekshna Nakshatra— Moola, Jyeshta, Ardra and Ashlesha. Revati and Kritika are also avoidable.

Auspicious Days:-

Wednesday, Thursday, Friday are very good and Monday is medium

Auspicious Yoga for IVF

Brahm, Indra, Priti, Saubhagy, Shaobhan, Vridhi, Dhruv, Harsh, Sidhi, shiv


Auspicious Chaughdiya Time

If you are looking for an auspicious time for Ivf, you should also consider a good “Choghadiya Muhurta”. If you start the IVF process mainly in “Amrit Choghadiya” Muhurta, then your chances of getting success increase.


Astrological combination for IVF baby with sperm donor


  • When a male has infertility due to Saturn & Mercury conjunction then his wife may have a kid with IVF of a sperm donor. 

  • If the 5th house has mercury or aspects of mercury and the 5th house has Saturn sign & Saturn navamsa then native has a kid with IVF of Sperm donor. 

  • When Saturn is in the 5th house & no beneficial planet aspected 5th house, and 5th house has saptmasa of Mars then native will have a kid with IVF but Sperm or eggs will be not belonging to parents. Note here no role of mothers. So, you can assume this is like a test-tube baby. 

Wednesday, April 27, 2022

श्री गणपति अथर्वशीर्ष पाठ | Benefits of Ganpati Atharvashirsha

 

श्री गणपति अथर्वशीर्ष पाठ



  • गणपति अथर्वशीर्ष का कम से कम एक पाठ नियमित करने से शरीर की आंतरिक शुद्धि होती है।
  • इससे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
  • गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ से मानसिक शांति और मानसिक मजबूती मिलती है।
  • इससे दिमाग स्थिर रहते हुए सटीक निर्णय लेने के काबिल बनता है।
  • इसके नियमित पाठ से शरीर के सारे विषैले तत्व बाहर आ जाते हैं।
  • शरीर में एक विशेष तरह की कांति पैदा होती है।
  • जीवन में स्थिरता आती है।
  • कार्यों में बेवजह आने वाली रूकावटें दूर होती हैं।

श्री गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ कैसे करें?

  • गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने के लिए प्रतिदिन अपने पूजा स्थान या किसी शुद्ध स्थान पर स्नानादि करके शांत मन से बैठ जाएं।
  • रीढ़ एकदम सीधी रखते हुए बैठें और पाठ करें।
  • इसका पाठ करने के लिए किसी पूजा की आवश्यकता नहीं होती।
  • भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा या फोटो सामने ना हो तो भी चलेगा।
  • इसका पाठ नियमित करना चाहिए, लेकिन प्रत्येक माह आने वाले विशेष दिन जैसे संकष्टी चतुर्थी के दिन शाम के समय 21 पाठ करना चाहिए।
  • गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ के साथ यदि एक माला ऊं गं गणपतये नम: की जपी जाए तो और भी अधिक लाभदायक होता है।
  • इसका पाठ महिलाओं के लिए भी बहुत लाभदायक होता है लेकिन वे अपनी माहवारी के दौरान इसका पाठ ना करें।

श्री गणपति अथर्वशीर्ष हिंदी अर्थ सहित (Ganpati Atharvashirsha in Hindi)

।। श्री गणेशाय नम: ।। 

(शान्ति-मन्त्र:)

ॐ भद्रं कर्णेभि शृणुयाम देवा:। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।।
स्थिरै रंगै स्तुष्टुवां सहस्तनुभि:। व्यशेम देवहितं यदायु:।1।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा:। स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:। 
स्वस्ति न स्तार्क्ष्र्यो अरिष्ट नेमि:।। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।2।
ॐ शांति:। शांति:।। शांति:।।

श्री गणपति अथर्वशीर्ष

ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि
त्वमेव केवलं कर्ताऽ सि
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि
त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम्।।1।।

हिंदी अर्थ: ॐकारापति भगवान गणपति को नमस्कार है। हे गणेश! तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्व हो। तुम्हीं केवल कर्ता हो। तुम्हीं केवल धर्ता हो। तुम्हीं केवल हर्ता हो। निश्चयपूर्वक तुम्हीं इन सब रूपों में विराजमान ब्रह्म हो। तुम साक्षात नित्य आत्मस्वरूप हो।

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।2।।

हिंदी अर्थ: मैं ऋत न्याययुक्त बात कहता हूं। सत्य कहता हूं।

अव त्व मां। अव वक्तारं।
अव श्रोतारं। अव दातारं।
अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं।
अव पश्चातात। अव पुरस्तात।
अवोत्तरात्तात। अव दक्षिणात्तात्।
अवचोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।
सर्वतो मां पाहि-पाहि समंतात्।।3।।

हिंदी अर्थ: हे पार्वतीनंदन! तुम मेरी (मुझ शिष्य की) रक्षा करो। वक्ता (आचार्य) की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। व्याख्या करने वाले आचार्य की रक्षा करो। शिष्य की रक्षा करो। पश्चिम से रक्षा। पूर्व से रक्षा करो। उत्तर से रक्षा करो। दक्षिण से रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे से रक्षा करो। सब ओर से मेरी रक्षा करो। चारों ओर से मेरी रक्षा करो।

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽषि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्माषि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽषि।।4।।

हिंदी अर्थ: तुम वाङ्‍मय हो, चिन्मय हो। तुम आनंदमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानंद अद्वितीय हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम दानमय विज्ञानमय हो।

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:।
त्वं चत्वारिकाकूपदानि।।5।।

हिंदी अर्थ: यह जगत तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत तुममें लय को प्राप्त होगा। इस सारे जगत की तुममें प्रतीति हो रही है। तुम भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो। परा, पश्चंती, बैखरी और मध्यमा वाणी के ये विभाग तुम्हीं हो।

त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।
त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं
रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।।6।।

हिंदी अर्थ: तुम सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हो। तुम जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म औ वर्तमान तीनों देहों से परे हो। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे हो। तुम मूलाधार चक्र में नित्य स्थित रहते हो। इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीन प्रकार की शक्तियाँ तुम्हीं हो। तुम्हारा योगीजन नित्य ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चंद्रमा हो, तुम ब्रह्म हो, भू:, र्भूव:, स्व: ये तीनों लोक तथा ॐकार वाच्य पर ब्रह्म भी तुम हो।

गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।
अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं।
तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं।
गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं।
अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरूत्तररूपं।
नाद: संधानं। सँ हितासंधि:
सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि:
निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता।
ॐ गं गणपतये नम:।।7।।

हिंदी अर्थ: गण के आदि अर्थात ‘ग्’ कर पहले उच्चारण करें। उसके बाद वर्णों के आदि अर्थात ‘अ’ उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार उच्चारित होता है। इस प्रकार अर्धचंद्र से सुशोभित ‘गं’ ॐकार से अवरुद्ध होने पर तुम्हारे बीज मंत्र का स्वरूप (ॐ गं) है। गकार इसका पूर्वरूप है।बिन्दु उत्तर रूप है। नाद संधान है। संहिता संविध है। ऐसी यह गणेश विद्या है। इस महामंत्र के गणक ऋषि हैं। निचृंग्दाय छंद है श्री मद्महागणपति देवता हैं। वह महामंत्र है- ॐ गं गणपतये नम:।

एकदंताय विद्‍महे।
वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दंती प्रचोदयात।।8।।

हिंदी अर्थ: एक दंत को हम जानते हैं। वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। वह दन्ती (गजानन) हमें प्रेरणा प्रदान करें। यह गणेश गायत्री है।

एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।।
भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।।

हिंदी अर्थ: एकदंत चतुर्भज चारों हाथों में पाक्ष, अंकुश, अभय और वरदान की मुद्रा धारण किए तथा मूषक चिह्न की ध्वजा लिए हुए, रक्तवर्ण लंबोदर वाले सूप जैसे बड़े-बड़े कानों वाले रक्त वस्त्रधारी शरीर प रक्त चंदन का लेप किए हुए रक्तपुष्पों से भलिभाँति पूजित। भक्त पर अनुकम्पा करने वाले देवता, जगत के कारण अच्युत, सृष्टि के आदि में आविर्भूत प्रकृति और पुरुष से परे श्रीगणेशजी का जो नित्य ध्यान करता है, वह योगी सब योगियों में श्रेष्ठ है।

नमो व्रातपतये। नमो गणपतये।
नम: प्रमथपतये।
नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।
विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।।

हिंदी अर्थ: व्रात (देव समूह) के नायक को नमस्कार। गणपति को नमस्कार। प्रथमपति (शिवजी के गणों के अधिनायक) के लिए नमस्कार। लंबोदर को, एकदंत को, शिवजी के पुत्र को तथा श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार-नमस्कार ।।10।।

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।
स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते।
स सर्वत: सुखमेधते।
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।।11।।

हिंदी अर्थ: यह अथर्वशीर्ष (अथर्ववेद का उप‍‍‍निषद) है। इसका पाठ जो करता है, ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। सब प्रकार के विघ्न उसके लिए बाधक नहीं होते। वह सब जगह सुख पाता है। वह पांचों प्रकार के महान पातकों तथा उपपातकों से मुक्त हो जाता है।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रात: प्रयुंजानोऽपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।।12।।

हिंदी अर्थ: सायंकाल पाठ करने वाला दिन के पापों का नाश करता है। प्रात:काल पाठ करने वाला रात्रि के पापों का नाश करता है। जो प्रात:- सायं दोनों समय इस पाठ का प्रयोग करता है वह निष्पाप हो जाता है। वह सर्वत्र विघ्नों का नाश करता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।

इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति।
सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।13।।

हिंदी अर्थ: इस गणपति अथर्वशीर्ष को जो शिष्य न हो उसे नहीं देना चाहिए। जो मोह के कारण देता है वह पातकी हो जाता है। सहस्र (हजार) बार पाठ करने से जिन-जिन कामों-कामनाओं का उच्चारण करता है, उनकी सिद्धि इसके द्वारा ही मनुष्य कर सकता है।

अनेन गणपतिमभिषिंचति
स वाग्मी भवति
चतुर्थ्यामनश्र्नन जपति
स विद्यावान भवति।
इत्यथर्वणवाक्यं।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्
न बिभेति कदाचनेति।।14।।

हिंदी अर्थ: इस गणपति अथर्वशीर्ष द्वारा जो गणपति को स्नान कराता है, वह वक्ता बन जाता है। जो चतुर्थी तिथि को उपवास करके जपता है वह विद्यावान हो जाता है, यह अथर्व वाक्य है जो इस मं‍त्र के द्वारा तपश्चरण करना जानता है वह कदापि भय को प्राप्त नहीं होता।

यो दूर्वांकुरैंर्यजति
स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति
स मेधावान भवति।
यो मोदकसहस्रेण यजति
स वाञ्छित फलमवाप्रोति।
य: साज्यसमिद्भिर्यजति
स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।।

हिंदी अर्थ: जो दूर्वांकुर के द्वारा भगवान गणपति का यजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो (धानी-लाई) के द्वारा यजन करता है वह यशस्वी होता है, मेधावी होता है। जो सहस्र (हजार) लड्डुओं (मोदकों) द्वारा यजन करता है, वह वांछित फल को प्राप्त करता है। जो घृत के सहित समिधा से यजन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा
सूर्यवर्चस्वी भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ
वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।
महादोषात्प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद्भवति से सर्वविद्भवति।
य एवं वेद इत्युपनिषद्‍।।16।।

हिंदी अर्थ: आठ ब्राह्मणों को सम्यक रीति से ग्राह कराने पर सूर्य के समान तेजस्वी होता है। सूर्य ग्रहण में महानदी में या प्रतिमा के समीप जपने से मंत्र सिद्धि होती है। वह महाविघ्न से मुक्त हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है।

॥ इति श्री गणपति अथर्वशीर्ष सम्पुर्ण ॥

Monday, April 25, 2022

बृहस्पति देव / बृहस्पतिवार व्रत कथा बृहस्पतिवार व्रत माहात्म्य एवं विधि (Vidhi)

बृहस्पति देव / बृहस्पतिवार व्रत कथा 
बृहस्पतिवार व्रत माहात्म्य एवं विधि (Vidhi)




इस व्रत को करने से समस्त इच्छ‌एं पूर्ण होती है और वृहस्पति महाराज प्रसन्न होते है । धन, विघा, पुत्र तथा मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । परिवार में सुख तथा शांति रहती है । इसलिये यह व्रत सर्वश्रेष्ठ और अतिफलदायक है ।
इस व्रत में केले का पूजन ही करें । कथा और पूजन के समय मन, कर्म और वचन से शुद्घ होकर मनोकामना पूर्ति के लिये वृहस्पतिदेव से प्रार्थना करनी चाहिये । 

दिन में एक समय ही भोजन करें । भोजन चने की दाल आदि का करें, नमक न खा‌एं, पीले वस्त्र पहनें, पीले फलों का प्रयोग करें, पीले चंदन से पूजन करें । पूजन के बाद भगवान वृहस्पति की कथा सुननी चाहिये ।


बृहस्पतिवार माहात्म्य एवं विधि 

यह व्रत गुरुवार के दिन किया जाता हैं जिसमे यह ध्यान रखना चाहिए की पूजा विधि- विधान के अनुसार ही हो. गुरुवार के दिन प्रात: काल उठकर पिली वस्तु से जैसे की पीले फुल, चने की दाल, पीले चावल, पिली मिठाई आदि का भोग लगाकर बृहस्पति देव की पूजा की जाती हैं.

व्रत के दिन एक समय ही भोजन करे तथा भोजन चने की दाल आदि का करे. तथा नमक ना खाए, पीले वस्त्र धारण करे, पीले चंदन और पीले फलों से पूजन करे. इस व्रत में केले का पूजन करे. पूजन करने के पश्चात बृहस्पति देव की कथा सुननी चाहिए.


वृहस्पतिहवार व्रत कथा (Vrat- Katha)

प्राचीन समय की बात है – एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा था । वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजा करता था ।
यह उसकी रानी को अच्छा न लगता । न वह व्रत करती और न ही किसी को एक पैसा दान में देती । राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती । एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले ग‌ए । घर पर रानी और दासी थी । उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आ‌ए । साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज । मैं इस दान और पुण्य से तंग आ ग‌ई हूँ । आप को‌ई ऐसा उपाय बता‌एं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं ।
साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी । तुम बड़ी विचित्र हो । संतान और धन से भी को‌ई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगा‌ओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें ।
परन्तु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हु‌ई । उसने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये ।

साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना । वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने डालना । इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जायेगा । इतना कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये ।
साधु के कहे अनुसार करते हु‌ए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो ग‌ई । भोजन के लिये परिवार तरसने लगा । एक दिन राजा रानी से बोला, हे रानी । तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है । इसलिये मैं को‌ई छोटा कार्य नही कर सकता । ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया । वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता । इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा ।
इधर, राजा के बिना रानी और दासी दुखी रहने लगीं । एक समय जब रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी । पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है । वह बड़ी धनवान है । तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जा‌ए ।
दासी रानी की बहन के पास ग‌ई । उस दिन वृहस्पतिवार था । रानी का बहन उस समय वृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी । दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बहन ने को‌ई उत्तर नहीं दिया । जब दासी को रानी की बहन से को‌ई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हु‌ई । उसे क्रोध भी आया । दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी । सुनकर, रानी ने अपने भाग्य को कोसा ।
उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आ‌ई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हु‌ई होगी । कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर ग‌ई और कहने लगी, हे बहन । मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी । तुम्हारी दासी ग‌ई परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न उठते है और न बोलते है, इसीलिये मैं नहीं बोली । कहो, दासी क्यों ग‌ई थी ।

रानी बोली, बहन । हमारे घर अनाज नहीं था । ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आ‌ई । उसने दासियों समेत भूखा रहने की बात भी अपनी बहन को बता दी । रानी की बहन बोली, बहन देखो । वृहस्पतिदेव भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते है । देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो । यह सुनकर दासी घर के अन्दर ग‌ई तो वहाँ उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया । उसे बड़ी हैरानी हु‌ई क्योंकि उसे एक एक बर्तन देख लिया था । उसने बाहर आकर रानी को बताया । दासी रानी से कहने लगी, हे रानी । जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते है, इसलिये क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाये, हम भी व्रत किया करेंगे । दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा । उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलायें । पीला भोजन करें तथा कथा सुनें । इससे गुरु भगवान प्रसन्न होते है, मनोकामना पूर्ण करते है । व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट आ‌ई ।
रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वृहस्पतिदेव भगवान का पूजन जरुर करेंगें । सात रोज बाद जब वृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा । घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन ला‌ईं तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया । अब पीला भोजन कहाँ से आ‌ए । दोनों बड़ी दुखी हु‌ई । परन्तु उन्होंने व्रत किया था इसलिये वृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे । एक साधारण व्यक्ति के रुप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आ‌ए और दासी को देकर बोले, हे दासी । यह भोजन तुम्हारे लिये और तुम्हारी रानी के लिये है, इसे तुम दोनों ग्रहण करना । दासी भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हु‌ई । उसने रानी को सारी बात बतायी ।
उसके बाद से वे प्रत्येक वृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगी । वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया । परन्तु रानी फिर पहले की तरह आलस्य करने लगी । तब दासी बोली, देखो रानी । तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गाय । अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है । बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिये हमें दान-पुण्य करना चाहिये । अब तुम भूखे मनुष्यों को भोजन करा‌ओ, प्या‌ऊ लगवा‌ओ, ब्राहमणों को दान दो, कु‌आं-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण करा‌ओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर ज्ञान दान दो, कुंवारी कन्या‌ओं का विवाह करवा‌ओ अर्थात् धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न हों । दासी की बात मानकर रानी शुभ कर्म करने लगी । उसका यश फैलने लगा ।
एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगें, उनकी को‌ई खोज खबर भी नहीं है । उन्होंने श्रद्घापूर्वक गुरु (वृहस्पति) भगवान से प्रार्थना की कि राजा जहाँ कहीं भी हो, शीघ्र वापस आ जा‌एं ।
उधर, राजा परदेश में बहुत दुखी रहने लगा । वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता । एक दिन दुखी हो, अपनी पुरानी बातों को याद करके वह रोने लगा और उदास हो गया ।
उसी समय राजा के पास वृहस्पतिदेव साधु के वेष में आकर बोले, हे लकड़हारे । तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतला‌ओ । यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया । साधु की वंदना कर राजा ने अपनी संपूर्ण कहानी सुना दी । महात्मा दयालु होते है । वे राजा से बोले, हे राजा तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हु‌ई । अब तुम चिन्ता मत करो भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगें । देखो, तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है । अब तुम भी वृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो । फिर कथा कहो या सुनो । भगवान तुम्हारी सब कामना‌ओं को पूर्ण करेंगें । साधु की बात सुनकर राजा बोला, हे प्रभो । लकड़ी बेचकर तो इतना पैसा भ‌ई नहीं बचता, जिससे भोजन के उपरांत कुछ बचा सकूं । मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है । मेरे पास को‌ई साधन नही, जिससे उसका समाचार जान सकूं । फिर मैं कौन सी कहानी कहूं, यह भी मुझको मालूम नहीं है । साधु ने कहा, हे राजा । मन में वृहस्पति भगवान के पूजन-व्रत का निश्चय करो । वे स्वयं तुम्हारे लिये को‌ई राह बना देंगे । वृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर में जाना । तुम्हें रोज से दुगुना धन मिलेगा जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा वृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा । जो तुमने वृहस्पतिवार की कहानी के बारे में पूछा है, वह इस प्रकार है -

वृहस्पतिदेव की कहानी (story)
प्राचीनकाल में एक बहुत ही निर्धन ब्राहमण था । उसके को‌ई संन्तान न थी । वह नित्य पूजा-पाठ करता, उसकी स्त्री न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती । इस कारण ब्राहमण देवता बहुत दुखी रहते थे ।


भगवान की कृपा से ब्राहमण के यहां एक कन्या उत्पन्न हु‌ई । कन्या बड़ी होने लगी । प्रातः स्नान करके वह भगवान विष्णु का जप करती । वृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी । पूजा पाठ समाप्त कर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती । लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो उनको बीनकर घर ले आती । एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी उसकी मां ने देख लिया और कहा, कि हे बेटी । सोने के जौ को फटकने के लिये सोने का सूप भी तो होना चाहिये ।


दूसरे दिन गुरुवार था । कन्या ने व्रत रखा और वृहस्पतिदेव से सोने का सूप देने की प्रार्थना की । वृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हु‌ई पाठशाला चली ग‌ई । पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो वृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला । उसे वह घर ले आ‌ई और उससे जौ साफ करने लगी । परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा ।
एक दिन की बात है । कन्य सोने के सूप में जब जौ साफ कर रही थी, उस समय उस नगर का राजकुमार वहां से निकला । कन्या के रुप और कार्य को देखकर वह उस पर मोहित हो गया । राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर उदास होकर लेट गया ।




राजा को जब राजकुमार द्घारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हु‌आ तो अपने मंत्रियों के साथ वह अपने पुत्र के पास गया और कारण पूछा । राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता भी बता दिया । मंत्री उस लड़की के घर गया । मंत्री ने ब्राहमण के समक्ष राजा की ओर से निवेदन किया । कुछ ही दिन बाद ब्राहमण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गाया ।

कन्या के घर से जाते ही ब्राहमण के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया । एक दिन दुखी होकर ब्राहमण अपनी पुत्री से मिलने गये । बेटी ने पिता की अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा ब्राहमण ने सभी हाल कह सुनाया । कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया । लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया । ब्राहमण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहातो पुत्री बोली, हे पिताजी । आप माताजी को यहाँ लिवा ला‌ओ । मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी, जिससे गरीबी दूर हो जा‌ए । ब्राहमण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, हे मां, तुम प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु भगवन का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जा‌एगी । परन्तु उसकी मां ने उसकी एक भी बात नहीं मानी । वह प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री की बची झूठन को खा लेती थी ।


एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी माँ को एक कोठरी में बंद कर दिया । प्रातः उसे स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्घि ठीक हो ग‌ई।
इसके बाद वह नियम से पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत करने लगी । इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को ग‌ई । वह ब्राहमण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हु‌आ । इस तरह कहानी कहकर साधु बने देवता वहाँ से लोप हो गये ।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वृहस्पतिवार का दिन आया । राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया । उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला । राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर वृहस्पतिवार का व्रत किया । उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हु‌ए । परन्तु जब अगले गुरुवार का दिन आया तो वह वृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया । इस कारण वृहस्पति भगवान नाराज हो ग‌ए ।
उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि सभी मेरे यहां भोजन करने आवें । किसी के घर चूल्हा न जले । इस आज्ञा को जो न मानेगा उसको फांसी दे दी जा‌एगी ।

राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हु‌ए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा, इसलिये राजा उसको अपने साथ महल में ले ग‌ए । जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर उसका हारलटका हु‌आ था । उसे हार खूंटी पर लटका दिखा‌ई नहीं दिया । रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है । उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया ।

लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हु‌आ है और जंगल में मिले साधु को याद करने लगा । तत्काल वृहस्पतिदेव साधु के रुप में प्रकट हो ग‌ए और कहने लगे, अरे मूर्ख । तूने वृहस्पति देवता की कथा नहीं की, उसी कारण तुझे यह दुख प्राप्त हु‌आ हैं । अब चिन्ता मत कर । वृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे, उनसे तू वृहस्पतिवार की पूजा करना तो तेर सभी कष्ट दूर हो जायेंगे ।
अगले वृहस्पतिवार उसे जेल के द्घार पर चार पैसे मिले । राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा । उसी रात्रि में वृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा । तूने जिसे जेल में बंद किया है, उसे कल छोड़ देना । वह निर्दोष है । राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा के योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण भेंट कर उसे विदा किया ।

गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल 
दिया । राजा जब नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हु‌आ । नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कु‌एं तथा बहुत-सी धर्मशाला‌एं, मंदिर आदि बने हु‌ए थे । राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है । तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्घारा बनवाये ग‌ए है । राजा को आश्चर्य हु‌आ और गुस्सा भी आया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी के पास धन कहां से आया होगा ।

जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे है तो उसने अपनी दासी से कहा, हे दासी । देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गये थे । वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जा‌एं, इसलिये तू दरवाजे पर खड़ी हो जा । रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो ग‌ई और जब राजा आ‌ए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा ला‌ई । तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, बता‌ओ, यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हु‌आ है । तब रानी ने सारी कथा कह सुना‌ई ।
राजा ने निश्चय किया कि मैं रोजाना दिन में तीन बार कहानी कहा करुंगा और रोज व्रत किया करुंगा । अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता ।
एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आ‌ऊं । इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चल दिया । मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिये जा रहे है । उन्हें रोककर राजा कहने लगा, अरे भा‌इयो । मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो । वे बोले, लो, हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है । परन्तु कुछ आदमी बोले, अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगें । राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरु कर दी । जब कथा आधी हु‌ई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हु‌ई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया।
राजा आगे बढ़ा । उसे चलते-चलते शाम हो ग‌ई । आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला । राजा ने उससे कथा सुनने का आग्रह किया, लेकिन वह नहीं माना ।
राजा आगे चल पड़ा । राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर ग‌ए तथा किसान के पेट में बहुत जो रसे द्रर्द होने लगा ।
उसी समय किसान की मां रोटी लेकर आ‌ई । उसने जब देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा । बेटे ने सभी हाल बता दिया । बुढ़िया दौड़-दौड़ी उस घुड़सवार के पास पहुँची और उससे बोली, मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना । राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गये तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया ।
राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया । बहन ने भा‌ई की खूब मेहमानी की । दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे है । राजा ने अपनी बहन से जब पूछा, ऐसा को‌ई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो । जो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले । बहन बोली, हे भैया यह देश ऐसा ही है यहाँ लोग पहले भोजन करते है, बाद में को‌ई‌अन्य काम करते है । फिर वह एक कुम्हार के घर ग‌ई, जिसका लड़का बीमार था । उसे मालूम हु‌आ कि उसके यहां तीन दिन से किसीने भोजन नहीं किया है । रानी ने अपने भा‌ई की कथा सुनने के लिये कुम्हार से कहा । वह तैयार हो गया । राजा ने जाकर वृहस्पतिवार की कथा कही । जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया । अब तो राजा को प्रशंसा होने लगी । एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, हे बहन । मैं अब अपने घर जा‌उंगा, तुम भी तैयार हो जा‌ओ । राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भा‌ई के साथ जाने की आज्ञा मांगी । सास बोली हां चली जा मगर अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भा‌ई के को‌ई संतान नहीं होती है । बहन ने अपने भा‌ई से कहा, हे भ‌इया । मैं तो चलूंगी मगर को‌ई बालक नहीं जायेगा । अपनी बहन को भी छोड़कर दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया । राजा ने अपनी रानी से सारी कथा बता‌ई और बिना भोजन किये वह शय्या पर लेट गया । रानी बोली, हे प्रभो । वृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान अवश्य देंगें । उसी रात वृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा । उठ, सभी सोच त्याग दे । तेरी रानी गर्भवती है । राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हु‌ई । नवें महीन रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हु‌आ । तब राजा बोला, हे रानी । स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती । जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना । रानी ने हां कर दी । जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हु‌ई तथा बधा‌ई लेकर अपने भा‌ई के यहां आ‌ई । रानी ने तब उसे आने का उलाहना दिया, जब भा‌ई अपने साथ ला रहे थे, तब टाल ग‌ई । उनके साथ न आ‌ई और आज अपने आप ही भागी-भागी बिना बुला‌ए आ ग‌ई । तो राजा की बहन बोली, भा‌ई । मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती ।
वृहस्पतिदेव सभी कामना‌एं पूर्ण करते है । जो सदभावनापूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, वृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामना‌एं पूर्ण करते है, उनकी सदैव रक्षा करते है ।

जो संसार में सदभावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे हृदय से करते है, उनकी सभी मनकामना‌एं वैसे ही पूर्ण होती है, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने वृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छा‌एं वृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की । अनजाने में भी वृहस्पतिदेव की उपेक्षा न करें । ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है । इसलिये सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये । हृदय से उनका मनन करते हुये जयकारा बोलना चाहिये ।
॥ इति श्री वृहस्पतिवार व्रत कथा 




आरती वृहस्पति देवता की
जय वृहस्पति देवा, ऊँ जय वृहस्पति देवा ।
छिन छिन भोग लगा‌ऊँ, कदली फल मेवा ॥
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी ।
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी ॥
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता ।
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता ॥
तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े ।
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्घार खड़े ॥
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी ।
पाप दोष सब हर्ता, भव बंधन हारी ॥
सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारो ।
विषय विकार मिटा‌ओ, संतन सुखकारी ॥
जो को‌ई आरती तेरी, प्रेम सहित गावे ।
जेठानन्द आनन्दकर, सो निश्चय पावे ॥
सब बोलो विष्णु भगवान की जय ।
बोलो वृहस्पतिदेव भगवान की जय ॥’